बात अप्रैल 2020 की है। कोरोना की पहली लहर अपने पीक पर थी। लॉकडाउन शहर में ही नहीं, संवेदनाओं पर भी लगा हुआ था। अस्पताल हो या मुक्तिधाम भीड़ दोनों जगह बराबर थी।
...और मौका आ गया मुझे भी अपने माता-पिता को अस्पताल ले जाने का। यूं तो मेरे पास दोस्तों, रिश्तेदारों की लंबी फेहरिस्त थी, लेकिन अस्पताल जाते ही मैं अकेला हो गया।
मैसेज फैलते ही फोन घनघनाने लगा, लेकिन मुझे कान से सुनने वाले ढांढस की नहीं, कंधे पर हाथ रखने वाले की ज़रूरत थी। जीवन में खुद को उस वक़्त से ज़्यादा अकेला कभी नहीं पाया मैंने। तभी एक दोस्त का कॉल आया। यह वह दोस्त था जो रेगुलर टच में नहीं था, पर बचपन का साथी था। क्लास की पढ़ाई हो या एनसीसी की परेड, हम साथ ही किया करते थे। जॉब, बिज़नेस अलग होने से दूर थे, पर भीतर से इतने करीब थे उसी दिन पता चला। उसने कॉल पर पूछा ‘कहां है दोस्त? मैं अस्पताल के नीचे खड़ा हूं।’ हम विदेश में किसी अपने को पाकर जैसे ख़ुश होते हैं, उसे देख मुझे वही ख़ुशी मिली।
लगा जैसे कोई मसीहा बनकर आया है। वो वक्त ही ऐसा था जब आपको अच्छे इलाज के साथ-साथ मानसिक संबल की बहुत ज़रूरत थी। मैं लिफ्ट के पास गया, तब तक वह सीढ़ियों से ऊपर आ चुका था। आते ही बोला- ‘ये ले तेरे लिए ख़ास मास्क लाया हूं। तुझे अस्पताल में इसकी ज़रूरत है। और घबरा बिल्कुल मत, सब ठीक होगा। मैं यहीं हूं आसपास, तेरा खाना मैं लाऊंगा और फोन 24 घंटे चालू है।’ जाते-जाते वह कब दोनों मरीज़ों के खाते में रुपए जमा कर गया, पता न चला। बाद में कॉल पर बोला- ‘मैं जानता हूं तुझे आर्थिक मदद की ज़रूरत नहीं, पर अभी तुझे न एटीएम पर जाना है और न ही बैंक। बस मां-पापा का ध्यान रख। रुपए मैं घर आकर मां-पापा के हाथ से ही वापस लूंगा।’
उसकी आमद और बातों से मेरी आंखों से आंसू ज़रूर बाहर निकले, लेकिन हिम्मत अंदर आ गई। ऐसे दोस्त के लिए दिल से दुआ।